बिठूर के राज ज्योतिषी तांता जी एक प्रभावशाली व्यक्ति थे। निकटवर्ती राज्यों में भी वे सम्मान की दृष्टि से देखे जाते। उनकी इच्छा थी कि मनूबाई का ब्याह किसी राजघराने में ही हो क्योंकि वह बालिका विलक्षण बुद्धि की थी। एक बार किसी कार्यवश वे झांसी गए। वहां के वृद्ध राजा गंगाधर राव के कोई रानी नहीं थी। वे इस बुढ़ापे में भी ब्याह के इच्छुक थे। तांता जी ने अवसर से लाभ उठाया। उन्होंने राजा गंगाधर राव से मनूबाई का जिक्र किया और बतलाया कि वह लड़की होनहार है। राजकुमारियों वाले सभी गुण उसमें विद्यमान हैं। गंगाधर राव ने तांता जी की बात मान ली।

इधर बिठूर आकर राज ज्योतिषी ने मोरोपन्त तांबे को यह समाचार बतलाया कि झांसी के राजा गंगाधर राव मनूबाई के साथ ब्याह करने को तैयार हैं यद्यपि वृद्ध राजा के साथ तांबे अपनी पुत्री का ब्याह करने के लिए तैयार नहीं थे तथापि राज ज्योतिषी तांता ने उन्हें यह प्रलोभन दिया कि उनकी पुत्री रानी बनकर रहेगी दामियां उसकी सेवा करेंगी। यह सौभाग्य प्रत्येक को प्राप्त नहीं होता। इस तरह मोरोपन्त तांबे मनूबाई का ब्याह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ करने को तैयार हो गए।

सन् में जब मनूबाई सात वर्ष की थी उसका ब्याह कर दिया गया और वह बिठूर से विदा होकर झांसी के राज महल में पहुंच गई। अठारहवीं सदी में पेशवाओं ने झांसी राज्य की नींव डाली। पेशवा वहां रह कर स्वयं राज काज नहीं देखते बल्कि मराठा सूबेदार को यह कार्य सौंप देते थे लेकिन सन् में पेशवा राज्य का अन्त हो गया। बाजीराव द्वितीय के आत्म समर्पण करने के बाद झांसी पर फिरंगियों का कब्जा हो गया।

जब मनूबाई का ब्याह हुआ तो उस समय पेशवा की ओर से राव गंगाधर झांसी का राज्य कार्य कर रहे थे। वे अपने तई स्वतंत्र नहीं थे। ईस्ट इण्डिया कंपनी के साथ उनकी संधि थी जिसके फलस्वरूप झांसी में अंग्रेजी सेना राज्य के खर्च से रखी हुई थी। राजा को ही नहीं जनता को भी यह बात पसंद नहीं थी लेकिन सभी विवश थे इसीलिए मौन थे क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व सारे भारत परठा रहा था। मनूबाई अभी बालिग ही थी किंतु उसने रनिवास में उसी परंपरा का पालन किया जो रानियां करती हैं। उसकी सेवा के लिए सुंदर सुंदर और काशी से तीन दासियां रखी गईं।

वह भी अब मनूबाई नहीं रही। वह झांसी की रानी थी और अब लक्ष्मीबाई के नाम से पुकारी जाने लगी। राजा गंगाधर राव को अपनी रानी लक्ष्मीबाई पर गर्व था। उन्हें अच्छी तरह याद था कि लग्न मण्डप के नीचे मनूबाई ने पंडित से कहा था कि पक्की गांठ बांधना पंडित जी कहीं न जाय। वे जानते थे कि लक्ष्मीबाई में विलक्षण प्रतिभा है और वह दिन प्रतिदिन विकास की ओर अग्रसर होती जा रही है। वे देखते कि लक्ष्मीबाई जब उनके साथ शतरंज खेलने बैठती तो घंटों बीत जाते और वह अपनी बाजी मात नहीं होने देती। घुड़सवारी में वह निपुण थी ही इसके अतिरिक्त उसे शिकार का भी शौक था। वह राज काज में भी अपने पति का हाथ बंटाती अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का परिचय एवं परामर्श देती। इस तरह राजा उससे प्रसन्न ही नहीं पूर्णतया प्रभावित थे।

गंगाधर राव मनूबाई को रानी कहकर पुकारते। वे प्यार से उसे लक्ष्मीबाई भी कहा करते। वे रानी की दासियों को हमेशा टोका करते कि देखो लक्ष्मीबाई का बहुत ध्यान रखो उसे किसी तरह का भी कष्ट न हो उसकी हर जरूरत पूरी की जाए। वह तुम्हारी रानी है और तुम्हारी ही नहीं इस पूरे झांसी राज्य की। इसीलिए काशी सुन्दर और मुन्दर हमेशा सजग रहतीं वे रानी को हाथों हाथ लिये रहतीं। दासियों को इस बात की बहुत बड़ी प्रसन्नता थी कि उनकी रानी उनके साथ सखी सहेलियों जैसा व्यवहार करती है वह रानी और दासी का भेद नहीं मानती। यही कारण था कि सुन्दर उस पर जान देती मुन्दर उसकी बलायें लेती नहीं अघाती और काशी उसके पीछे पीछे घूमती। रानी यह जानती थी उसको मन बहलाने के लिए तीन सहेलियां मिली हैं। वह क्या करती एक नया कौतुक।

गंगाधर राव भी यह देखकर हंस देते। वे देखते कि घुड़सवारी के लिए एक घोड़ा नहीं लक्ष्मीबाई ने चार घोड़े मंगाये हैं। तीनों दासियों के साथ रानी घोड़े की सवारी करती। वह अपनी दासियों को तलवार चलाना भी सिखलाती। व्यायाम में भी लक्ष्मीबाई की विशेष रुचि थी। वह दौड़ लगाती तीनों दासियों के साथ। छलांग मारती ऊंचे से कूदती और कूद पड़ती भरी नदी में और पलक मारते ही उसे तैर कर पार कर लेती। सुंदर और मुंदर को यह लग रहा था कि उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। रानी लक्ष्मीबाई उनके लिए एक बहुत बड़ी सौगात बनकर आई है। और काशी का रंग ढंग निराला था।

वह ऐसा करती कि जब रानी सो जाती तो उस पर चंवर डुलाते डुलाते उसके पास ही बैठ जाती। उस समय सुंदर और मुंदर रानी के चरण दबातीं तभी काशी अपनी कांख से एक छोटी सी डिबिया निकालती। वह रानी की गोरी ठुड्ढी पर काजल का छोटा सा तिल बना देती। लक्ष्मीबाई जब सोकर उठती और आईने में अपना मुंह देखती तो तीनों दासियों को मीठी डांट बताती कि यह किसकी शरारत है तभी काशी दोनों हाथ बांधकर उसके सामने खड़ी हो जाती और लिहाज़ के साथ दया की भीख मांगती हुई कहती कि कुसूर मुआफ करें सरकार मैंने सोचा कि महारानी के गोरे मुंह पर काला तिल जरूर होना चाहिए।

आप नहीं जानतीं हुजूर पत्थर को भी नज़र लग जाती है। अगर यह गलत हो तो लौंड़ी सामने खड़ी है उसका सिर कलम करवा दो। तब समां बहुत ही निराला हो जाता। लक्ष्मीबाई काशी को गले से लगा लेती वह हंसने लगती और तभी देखा जाता कि सुंदर और मुंदर की आंखों में भी खुशी के आंसू छलक आये हैं। पता नहीं वे रानी के प्रति सम्मान के सूचक होते अथवा इसके प्रतीक कि उनकी महारानी में कितना अधिक सौहार्द्र है।