सबसे विदा लेकर सुग्रीव किष्किंधा नगर में चले गए । वर्षा काल बिताने के लिए राम प्रस्रवण पर्वत की एक सुंदर गुफा में रहने लगे ।

वर्षा ऋतु राम को बड़ी दुखदायी हो रही थी । कभी वे लक्ष्मण से कहते “ सुग्रीव को तो स्त्री सुख् के साथ साथ राज्य भी मिल गया वह कितना सुखी है । मुझे पहले राज्य लक्ष्मी ने छोड़ दिया फिर वन में आकर स्त्री ने कहाँ जाऊँ क्या करूँ उधर सुग्रीव ने बालि की स्त्री तारा से विवाह कर लिया भोग विलास और मदिरा पान में वह डूब गया और राम को दिया हुआ अपना वचन बिल्कुल भूल गया ।

जब वर्षा समाप्त गई तो हनुमान ने सुग्रीव को अपने कर्तव्य की याद दिलाई । सेनापति नील को बुलाकर सुग्रीव ने आज्ञा दी कि पंद्रह दिन के भीतर सब वानर राजधानी में आजाएँ। नील ने सभी दिशाओं में दूत भेजे । सुग्रीव फिर भोग विलास में रम गया । इधर शरद ऋतु आने पर सुग्रीव राम के पास नहीं आया तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि राजमद में डूबकर मालूम होता है सुग्रीव मेरा काम भूल गया है । किष्किंधा जाकर उससे साफ कह दो कि यमलोक का दरवाजा बंद नहीं हुआ । जिस रास्ते बालि गया है उसी से उसको भी भेज दूँगा ।

इतना सुनते ही लक्ष्मण आग बबूला हो गए और धनुष बाण लेकर चल दिए । लक्ष्मण को बड़े क्रोध में देखकर राम ने कहा डरा धमकाकर और समझा बुझाकर काम निकालना है। आखिर सुग्रीव हमारा मित्र ही तो है और उससे सहायता भी लेनी है । किष्किंधा पहुँचकर लक्ष्मण ने धनुष की टंकार की तो सुग्रीव भयभीत हो गया । लक्ष्मण के सामने आने का उसको साहस नहीं हुआ । तारा ने बुद्धिमानी से उनका क्रोध शांत किया वह लक्ष्मण को अन्तःपुर में ले गई और उनका उचित आदर सत्कार किया । सुग्रीव ने हनुमान को बुलाकर कहा “फिर दूत भेजो । सब वानरों को बुलवाओ । जो दस दिन के भीतर नहीं आ जाएगा उसे कठोर दंड मिलेगा । इसके बाद लक्ष्मण के साथ सोने की पालकी में बैठकर वह राम से मिलने गया ।

राम के चरणों पर गिरकर उसने क्षमा माँगी । राम ने बडे स्नेह से उसे गले लगा लिया राम और सुमग्रीव में बातें हो ही रही थीं कि वानर भालुओं की टोलियाँ आ पहुँची । नल नील अंगद और हनुमान के साथ लाखों वानर प्रस्नवण पर्वत पर आ गए । जामवंत के पीछे पीछे भाजुओं की बड़ी भारी भीड़ थी । वानर भालुओं को देखकर राम बड़े प्रसन्‍न हुए । राम ने सुग्रीज से कहा भाई । पहले तो यह पता लगाना है कि सीता जीवित है अथवा नहीं । यदि जीवित है तो किस स्थिति में है सुप्रीव ने बानर दल को चार भागों में बाँटा । प्रत्येक दल का एक नायक बना दिया ।

सुग्रीव ने उन्हें नगरों द्वीपों और बनों का पूरा विवरण भी बता दिया उसने हनुमान नल नील आदि चुने हुए वानरों को अंगद के नेतृत्व में दक्षिण की ओर भेजा हनुमान को पास बुलाकर राम ने अपने नाम की अँगूठी दी और कहा कि मेरी यह निशानी देखकर सीता समझ जाएगी कि तुमको मैंने भेजा है। उसका हाल लेकर मेरा दुःख भी उसे सुनाना । सुग्रीय ने सबको कहा “ वीरो जैसे भी हो सके सीताजी का पता लगाओ । इस काम के लिए एक महीने का समय दिया जा रहा है । बिना समाचार लिए जो एक महीने बाद लौटेगा उसे मृत्यु दंड मिलेगा ।

राजा सुग्रीव की जय महाराजा रामचन्द्र की जय नारे लगाते हुए वानर बीर अपनी अपनी दिशाओं में चल पड़े । पूर्व पश्चिम और उत्तर की ओर गए दल निराश होकर महीने के भीतर लौट आए दक्षिण का दल वनों पर्वतों और कंदराओं को खोजता हुआ समुद्र तक जा पहुँचा अब कहाँ जाएँ सामने अथाह सागर गरज रहा था । किष्किंधा से चले कई महीने हो गए थे यदि यों ही लौटे तो सुग्रीव के हाथों मृत्यु निश्चित है। अब न आगे जा सकते हैं और न पीछे ।

तभी उन्होंने पर्वत की चोटी पर एक बड़ा भयंकर गिद्ध देखा। वह जटायु का बड़ा भाई संपति था। बानर उसे देखकर डर गए और समझे कि निश्चित ही वह हमें खा जाएगा हनुमान ने बुद्धि से काम लिया । वे बोले आपसे अच्छा तो जटायु ही था जो राम का कुछ काम करके तो मरा । जटायु का नाम सुनकर संपाति बोला वानरों घबराओ मत अपना परिचय दो और कृपा करके यह बताओ कि जटायु कब और कैसे मरा वह मेरा छोटा भाई था अंगद ने सारा हाल कह सुनाया । उसे सुनकर संपाति बोला “मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ । नहीं तो तुम्हारी सहायता करके रावण से अपने भाई की मृत्यु का बदला लेता कुछ महीने पहले मैंने देखा था कि रावण एक स्त्री को लिए जा रहा है वह हा राम हा कक्ष्मण कहकर रोती जा रही थी। वह सीता ही होगी ।

समुद्र के किनारे तुम दक्षिण तक चलते जाओ । वहाँ से सौ योजन लंबे समुद्र को यदि कोई पार कर सकेगा तो बह सीता से मिल सकता है । वानर दक्षिणी तट तक जा पहुँचे । अब लंका पहुँचने की योजना पर विचार होने लगा कोई भी वानर आगे नहीं आ रहा था। अंगद बड़े उदास हो गए तब जामवंत ने हनुमान से कहा बीर तुम तो पवन पुत्र हो कैसे चुप बैठे हो उठो सबकी आँखें तुम्हारी ओर लगी हैं । इतना सुनना था कि हनुमान सिंह की तरह अँगड़ाई लेकर उठे । सोने के पहाड़ की तरह उनका शरीर हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर जाने की आज्ञा माँगी सबने उनको शुभकामनाएँ देकर बिदा क्रिया और कंहा कि हनुमान हमारा जीवन भी तुम्हारे ही हाथ में है । एक छलाँग में हनुमान महेन्द्र पर्वत पर जा खडे हुए