सीताजी से विदा लेकर हनुमानजी चल पड़े फिर रुककर सोचने लगे कि अब आ गए हैं तो कुछ अपना पराक्रम भी दिखाएँ और शत्रु का बल भी जानें । आगे काम आएगा वे अशोक वाटिका के पेड़ों पर टूट पड़े उन्होंने फल खाए वृक्ष तोड़े और चित्रघर तोड़ फोड़ डाले । पहरेदारों को उन्होंने मारकर भगा दिया । राक्षसियाँ और पहरेदार रावण के दरबार में पहुँचे ।

उन्होंने कहा “नाथ रक्षा कीजिए एक वानर ने सब वन उजाड़ डाला है । बहुत से रक्षक मारे गए हैं । अशोक वाटिका में शोक छा गया है । बस सीता का निवास बचा हैं । रावण क्रोध से तिलमिला उठा । बंदर को पकड़ने के लिए उसने सैनिकों का एक दल भेजा । राम लक्ष्मण और सुग्रीव की जय बोलते हुए हनुमान ने सबको मार डाला । रावण को जब उसका पता लगा तब उसने अपने बीर पुत्र अक्षयकुमार को हनुमान से युद्ध करने के लिए भेजा ।

अक्षयकुमार महारथी था । दोनों वीर भिड़ गए। अंत में एक बड़ा सा वृक्ष उखाड़कर हनुमान ने राक्षसकुमार पर दे मारा उसका रथ टूट गया और वह सारथी समेत मर गया । चुत्र वध का समाचार पाकर रावण के क्रोध का ठिकाना न रहा । उसनें अपने सबसे बड़े बेटे मेघनाथ को बुलाया वह बड़ा वीर था उसने इन्द्र को भी जीत लिया था इसलिए उसका एक नाम इंद्रजीत भी हो गया था रावण ने मेघनाथ की प्रशंसा की और हनुमान पर विजय पाने के लिए परामर्श भी दिया । अपनों बल वर्णन करके मेघनाद चल पड़ा ।

हनुमान ने देखा कि एक बड़ा प्रबल योद्धा आ रहा है वे आकाश में उड़ गए और पैंतरा बदल बदल कर राक्षस के बाणों से बचने लगे । इन्द्रजीत के अनेक अमोघ बाण भी उन्होंने व्यर्थ कर दिए । हनुमान ने भी बड़े बड़े वृक्ष उखाड़कर मेघनाद पर फेंके । पर उस धनुर्धर ने उन्हें बीच में ही काटकर गिरा दिए हनुमान किसी तरह मेघनाद के हाथ नहीं आ रहे थे । तब उसने ब्रह्मास्त्र चलाया । ब्रह्मास्त्र का मान रखने के लिए हनुमान ने उसे सहन किया और चोट खाकर वे गिर पड़े । मेघनाथ की आज्ञा से राक्षसों ने उन्हें बाँध लिया बाँधते समय हनुमान ने अपना शरीर बहुत बढ़ा लिया ।

रस्सियों से खींचते हुए राक्षस उन्हें रावण की सभा में ले चले । रास्ते में वे उन्हें मुक्कों से ठोकते पीटते जाते थे । दरबार में पहुँचकर हनुमान ने देखा कि सोने के सिंहासन पर लंका का स्वामी रावण बैठा है उसका तेज सूर्य के समान है । हनुमान को वह सब प्रकार से योग्य और शक्तिशाली दिखाई दिया ।

रावण की आज्ञा से सेनापति प्रहस्त ने हनुमान से पूछा तुम कौन हो यहाँ क्‍यों आये हो अशोक वाटिक़ा को तुमने क्‍यों उजाड़ा और राक्षसों को मारने का दुस्साहस तुमने केसे किया रावण की ओर मुँह करके वे निडर होकर्‌ बोले महाराज में किष्किंधा के राजा सुग्रीव का सेवक हूँ और महात्मा राम का दूत हूँ। मेराँ नाम॑ हनुमान है । राम की भार्या सीता को आप हर लाए हैं । उन्हीं की खोज में मैं यहाँ आया हूँ । वन्दिनी सीता से मैं मिल चुका हूँ । आपके दर्शन करना चाहता था इसलिए मैंने अशोक वाटिका में उत्पात किया कि शायद इस तरह आपसे भेंट हो जाए।

अपनी जान बचाने के लिए आपके योद्धाओं से मुझे लड़ना पड़ा । इसमें मेरा कोई अपराध नहीं । राजा सुग्रीव ने कहलाया है कि आप सीता को सम्मान सहित लोटा दें । महा धनुर्धर राम से आप किसी प्रकार युद्ध नहीं जीत सकते । खर दूषण का हाल आप जान ही चुके हैं । अकेले राम ने दो घड़ी के भीतर ही उनका सर्वनाश कर दिया । हनुमान की बातें सुनकर रावण के क्रोध का ठिकाना न रहा । उसने आज्ञा दी कि इस दुष्ट वानर का वध कर दिया जाए। तभी रावण के छोटे भाई बिभीषण ने निवेदन किया महाराज राजनीति के अनुसार दूत का वध नहीं किया जाता ।

आप नीतिवान हैं । दूसरे जब यहाँ से जाकर आपके बल विक्रम की बात करेगा तब बैरियों का उत्साह ठंडा पड़ जाएगा । रावण ने विभीषण की बात मान ली और आज्ञा दी कि वानर की पूँछ में तेल से तर कपडे लपेट दिए जाएँ फिर नगर में घुमाकंर पूँछ में आग लगा दी जाए। जब पूँछ जल जाए तो इसे छोड़ दिया जाए पूँछ रहित बंदर अपने स्वामी को ले आएगा तो उसे भी मैं देख लूँगा।

रावण को आज्ञा पाकर राक्षस तेल से तर कर करके कपड़े हनुमान की पूँछ में लपेटने लगे । हनुमान की लंबी पूँछ में ढेरों कपड़े लिपट गए तब लंकावासी उनको नगर में घुमाने निकले नर नारियाँ और बच्चों की बहुत बड़ी भीड़ ताली पीटती हुई पीछे हो ली। कोई कोई उनके ऊपर ईंट पत्थर भी फेंक देता था। हनुमान को भी लंका देखने का अवसर मिल गया । वे मन ही मन प्रसन्न थे नगर में घुमाकर राक्षसों ने उनकी पूँछ में आग लगा दी ।

आग लगी देखकर हनुमान ने शरीर छोटा किया और बंधन से निकलकर छलाँग लगाई । वे नगर के फाटक पर चढ़ गए और उसमें आग लगा दी एक अटारी से वें दूसरी अटारी पर कूदते और आग लगा देते । सारी लंकां जलने लगी । लंका का सोना बहकर समुद्र में जा पहुँचा नगर में हाहाकार मच गया । पानी पानी चिल्लाकर स्त्री बच्चे इधर उधर भागने लगे सबको अपनी जान बचाने की पड़ी । आग की लपटें आकाश चूम रही थीं और हनुमान भी अग्नि रूप हो रहे थे सोने की लंका जलकर राख हो गई हनुमान ने समुद्र में कृदकर अपनी पूँछ बुझाई । अब हनुमान को सीताजी की चिन्ता हुई ।

उनको भय हुआ कि कहीं वे न जल गई हों । तब तो बड़ा ही अनर्थ हो जाएगा । वे इसी चिन्ता में डूब उतरा रहे थे कि उनकी आँख अपनी पूँछ पर पड़ी उसके बाल तक नहीं जले थे । उनको धीरज बँधा जब मैरी ही पूँछ नहीं जली तो पतिब्रत धर्म से रक्षित सीताजी कैसे जल सकती हैं । तभी उनको देववाणी भी सुनाई दी “लंका जल गईं पर जानकी पर आँच भी नहीं पहुँची । हनुमानजी उसे सुनकर बहुत प्रसन्‍न हुए उन्होंने सोचा कि मैं अपनी आँखों से देखता चलूँ । यह सोचकर वे फिर जानकी जी के पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम किया । सीताजी ने प्रसन्‍न होकर अनेक आशीर्वाद दिए । वैदेही को अनेक तरह से ढाढ्स बँधाकर और श्रीराम के बल पराक्रम का भरोसा देकर हनुमानजी लौट चले ।