त्रेता युग की बात है। सरयू नदी के किनारे कौसल नाम का एक प्रसिद्ध राज्य था जहाँ अज के पुत्र राजा दशरथ राज करते थे। अयोध्या उस राज्य की राजधानी थी। यह नगरी बारह योजन लंबी और तीन योजन चौड़ी थी। नगर के चारों ओर ऊँची चौड़ी दीवारें थीं और उसके बाहर गहरी खाई। दीवार पर सैकड़ों शतघ्नीयाँ तोपें रखी थी। सहस्रों सैनिक और महारथी नगर की रक्षा में तटपर रहते थे।
नगर के बीचोंबीच राजमहल था। राजमहल से आठ सड़कें बराबर दूरी पर परकोटे तक जाती थी। नगर में अनेक उद्यान सरोवर और क्रीड़ा गृह थे। ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं थी जिनमें विद्वान शूरवीर कलाकार कारीगर और व्यापारी रहते थे। घर घर में लक्ष्मी का निवास था। बाजार अच्छी से अच्छी वस्तुओं से भरे रहते थे। नगर के लोग स्वस्थ और सदाचारी थे। कुल मर्यादा के अनुसार के अनुसार सभी अपने धर्म का पालन करते थे। सभी जगह शांति पवित्रता और एकता का वास था। राजा दशरथ बड़े प्रतापी और सदाचारी थे। सगर रघु दिलीप आदि अपने पूर्वजों की तरह उनका भी यश चारों ओर फैला हुआ था।
आठ सुयोग्य मंत्रियों की सहायता से वे राज काज चलाते थे। इन मंत्रियों में सुमंत मुख्य थे। मंत्रियों के अतिरिक्त वशिष्ठ वामदेव जाबालि आदि राज पुरोहित भी राजा को परामर्श देते थे। इनकी सहायता से राजा सदा प्राजा हित के कार्यों में लगे रहते थे। राजा दशरथ ने बहुत दिन तक राज सुख का भोग किया उन्हें धन मान यश किसी की कमी न थी पर उन्हें एक दुःख था। उनको कोई संतान न थी। जीवन उन्हें सुना सा लगता था।
उनकी रानियां कौशल्या सुमित्रा और कैकेयी भी इस कारण दुःखी रहती थी। राजा ने इस विषय में अपने मंत्रियों और पुरोहित से बात की। सबकी सलाह से यह निश्चय हुआ की पुत्रेष्टि यज्ञ किया जाए। सुमंत ने प्रस्ताव किया कि महान तपस्वी ऋष्य श्रृंग को यज्ञ का आचार्य बनाया जाए। यह राय सबको पसंद आई। यज्ञ की तैयारियां होने लगीं। राजा दशरथ स्वयं ऋष्यश्रृंग को बुलाने गए। सब राजाओं को निमन्त्र दिया गया। मिथिला के राजा भी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आए। अनेक ऋषि मुनि भी आमंत्रित होकर आए। सरयू नदी के किनारे यञशाला का निर्माण हुआ। ऋष्यश्रृंग ने शुभ मुहूर्त में यज्ञ प्रांभ किया।
यज्ञ का घोडा गया। एक वर्ष बाद घोडा लौटकर आया तब बड़ी रानी कौशल्या ने उसका तिलक किया। अब वेद मन्त्रों की मंगल ध्वनि यञशाला में गूंज उठी। अग्नि में आहुतियां पड़ने लगीं। राजा दशरथ ने जब अंतिम आहुति डाली तो अग्निदेव स्वयं सोने के पात्र में खीर लेकर उनके सामने प्रकट हो गए। ऋष्यश्रृंग ने अग्निदेव से खीर का पात्र ले लिया और राजा दशरथ को देकर कहा कि यह खीर पुत्रदायक है। अपनी रानियों को इसका सेवन कराइए।
खीर लेकर राजा ने उसे सर से लगा लिया। उन्होंने खीर का पात्र कौशल्या को देकर कहा कि तुम सब बाँट लो। कौशल्या ने आधी खीर अपने लिए रख लिया शेष सुमित्रा को दे दी। सुमित्रा ने उस आधे भाग का आधा अपने लिए रखकर शेष कैकयी को दे दिया। कैकेय ने उसमें से आधी खीर स्वयं ले ली और आधी सुमित्रा को ही लौटा दी। समय आने पर चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से श्रीराम ने जन्म लिया। इसी तिथि पर हम आज भी रामनवमीं का पर्व मनाते हैं। मंझली रानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए लक्ष्मण और शत्रुघ्न। कैकयी के एक पुत्र हुआ। उसका नाम भरत रखा गया। रखा ने बड़ी धूमधाम से पुत्रोत्सव मनाया। राजमहल में मंगलाचार होने लगे और स्त्रियां बधाइयां गाने लगीं। देवताओं ने फूलों की वर्षा की। अप्सराएं नृत्य करने लगीं।
राजा और प्रजा के हर्ष का ठिकाना न रहा। चारों राजकुमार बड़े सुंदर थे। धीरे धीरे वे बड़े हुए और साथ साथ खाने खेलने लगे। चरों में बड़ी प्रीति थी। लक्ष्मण राम के साथ अधिक रहते और शत्रुघ्न भरत के साथ। चरों भाई जब अयोध्या की गलतियों में खेलने निकलते तब उन्हें देखकर ठगे से रह जाते। राम के रूप में अद्द्भुत आकर्षण था। उन्हें जो देखता वह देखता ही रह जाता।