एक बार भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के यज्ञ में शामिल होकर द्वारकापुरी लोट चुके थे। समुद्र के मध्य में स्थित द्वारकापुरी अपरावती के सदृश्य शोभा दे रही थी। उसका वैभव इंद्र की स्वर्णपुरी के वैभव को भी लज्जित कर रहा था। उसकी छटा के सामने इंद्रपुरी की छटा भी लजा रही थी। उसके यश और प्रताप का गौरव पृथ्वी पर चारों ओर गूंज रहा था।
साधारण नृपतियों की तो बात क्या द्वारका के वैभव को देखकर स्वयं देवराज इंद्र के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुआ करती थी। एक बार पृथ्वी के सैकड़ों नृपति द्वारकापुरी की छटा और उसके वैभव को देखने के लिए वहाँ गए। द्वारकाधीश की ओर से उन सभी नृपतियों का आदर सत्कार किया गया और उनके निवास के लिए समुचित व्यवस्था की गई। मध्याह्न का समय था।
राजसभा में सभी नृपतियों के मध्य स्वर्ण सिंहासन पर भगवान श्री कृष्ण शोभायमान थे। वे ऎसे ज्ञात हो रहे थे मानो देवताओं के मध्य में प्रजापति ब्रह्मा शोभा दे रहे हों। सहसा आकाश बादलों से आच्छन्न हो उठा गंभीर गर्जना होने लगी और रह रहकर बिजली भी चमकने लगी। ऎसा ज्ञात होने लगा मानो प्रलय होने वाला है। राजसभा में बैठे हुए नृपतिगण विस्मित और भयभीत होकर आकाश की ओर रह रहकर देखने लगे।
नृपतियों को उस समय और भी आश्चर्य हुआ जब उन्होंने आकाश में छाए हुए बादलों के भीतर से वीणा बजाते हुए देवर्षि नारद को धरती पर उतरते हुए देखा। नृपतिगण विस्मय भरे नेत्रों से नारद जी की ओर देखने लगे। नारद ने राज सभा के मध्य में उतरकर भक्तिपूर्वक भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम किया और विनितता के साथ कहा प्रभो आप धन्य हैं सभी विभूतियों के साथ आपकी शोभा अभूतपूर्व है।
नारद जी की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण मुस्करा उठे । उन्होंने कहा हाँ नारद जी मैं धन्य हूँ और सभी विभूतियों के साथ मेरी शोभा अपूर्व है। यह सुनकर नारद हर्ष से गदगद हो उठे। वे आनन्द की तरंगों में डूब कर बोले प्रभो मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे मिल गया। मैं आपको पहचान गया आपके दर्शन से कृतकृत्य हो गया। अब में जा रहा हूँ। राजसभा में बैठे हुए नृपतिण आश्चर्यचकित हो गए।
उन्हें नारद और श्री कृष्ण की ओर देखते हुए बोले द्वारकाधीश नारद ने क्या कहा और आपने क्या उत्तर दिया हमारी समझ में कुछ भी नहीं आया। हमें नारद और अपनी बात का वास्तविक अर्थ समझाने की कृपा करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कह वास्तविकता तो आपको स्वयं नारद जी ही समझाएंगे। यह कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने नारद की ओर देखा। नारद अपनी और भगवान श्रीकृष्ण की बात का वास्तविक अर्थ नृपतियों को समझाने लगे।
नृपतिगण नारद की ओर देखते हुए बड़े ध्यान से उनकी बात सुनने लगे। नारद जी बताने लगे प्रभात के पश्चात का समय था। सूर्य की स्वर्णिम किरणॆं धरती पर खेल रही थीं। मैं गंगा के तट पर विचरण कर रहा था। मेरी दृष्टि एक विशाल कूर्म पर पड़ी जो गंगा के पवित्र जल में डुबकियां लगा रहा था। मैंने कूर्म के पास जाकर उससे कहा तू धन्य है जो दिन रात गंगा के पवित्र जल में डुबकियां लगाया करता है।
गंगा के जल में डुबकियां लगाने के कारण तू देवताओं के समान पवित्र हो गया है। मेरी बात सुनकर कूर्म बोल उठा देवर्षि मैं धन्य नहीं हूँ। धन्य तो है वह गंगा जिसके जल में हमारे जैसे लख लख जीव निवास करते हैं। कूर्म की बात सुनकर मैं गंगा के समक्ष उपस्थित हुआ। मैंने गंगा से कहा देवसर्य गंगे तू धन्य है। तू लख लख जीवों को अपने जल में स्थान देकर उन्हें संजीवनी प्रदान करती है। मेरी कथन को सुनकर गंगा बोली देवर्षि मैं धन्य नहीं हूँ।
धन्य तो हैं वह समुद्र जो मेरी जैसी सैकड़ों सरिताओं को धारण करता है। मैं समुद्र के समक्ष उपस्थित हुआ। मैंने समुद्र से कहा सरिताओं के स्वामी आप धन्य हैं। आप सैकड़ो सरिताओं को अपने भीतर स्थान देकर उनके जीवन को कृतार्थ करते हैं। मेरी बात सुनकर समुद्र बोला देवर्षि मैं धन्य नहीं हूँ। धन्य तो है वह मेदिनी जो हमारे जैसे बहुत से समुद्रों को ऊपर उठाए हुए हैं। मैंने मेदिनी के समक्ष उपस्थित होकर उससे कहा वसुन्धरे तू धन्य है। तू बहुत से समुद्रों को धारण करके उन्हें गौरव प्रदान करती है। मेदिनी ने उत्तर दिया नारद मैं धन्य नहीं हूँ।
धन्य तो हैं वे पर्वत जो मुझे भी धारण करने के कारण भूधर कहलाते हैं। मैंने पर्वतों के समक्ष उपस्थित होकर उनसे कहा पर्वतों आप धन्य हैं। आप मेदिनी को धारण करके उसके मनोरथ सफल बनाते हैं। पर्वतों ने कहा देवर्षि हम धन्य नहीं हैं। धन्य तो प्रजापति ब्रह्मा हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना की है। मैंने ब्रह्मा की सेवा में उपस्थित होकर उनसे कहा प्रजापते आप धन्य हैं। आपने सृष्टि की रचना करके अपनी क्षमता का परिचय दिया है।
प्रजापति ने उत्तर दिया देवर्षि मैं धन्य नहीं हूँ। धन्य तो हैं वे भगवान श्रीकृष्ण जो विष्णु के अवतार हैं और जो इस समय द्वारका के राजसिंहासन पर विराजमान हैं। यह वास्तविकता बता कर नारद जी ने नृपतियों से कहा मैं इसी सत्य के अनुसंधान के लिए यहाँ आया था। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं उस सत्य का उदघाटन किया मैं धन्य हूँ।
नृपतियों श्रीकृष्ण को छोड़कर और कोई धन्य नहीं है। नारद अपने कथन को समाप्त कर नारायण नारयण कहते और वीणा बजाते हुए आकाशलोक की ओर चले गए और नृपतिगण श्रीकृष्ण को सर्वज्ञ सर्वपूजित जानकर उनकी वंदना करने लगे। उनके चरणॊं में नत मस्तक होने लगे।