राम के हाथों पराजित होकर रावण अपने मन में बड़ा लज्जित हुआ । उसका अहंकार चुर चुर हो गया । राम को जेसा उसने समझ रखा था उससे वे कहीं बढ़कर निकले । उसके भीतर का बल थक गया । उसके बहुत से बीर मारे जा चुके थे । सेनापति प्रहस्त भी मारा गया ।
इस संकट के समय उसने अपने छोटे भाई कुंभकर्ण को जगाने की बात सोची । राक्षसों की एक टोली के साथ बहुत से भैंसे और मदिरा के घड़े भेजे । एक दिन जगकर कुंभकर्ण छह महीने सोता था । सब राक्षस मिलकर कुंभकर्ण को जगाने लगे । उन्होंने बाजे बजाए उसके हाथ पैर खींचे बाल और कान खींचे फिर भी वह नहीं जगा । जब उस पर हाथी दौड़ाए गए तब कहीं वह जागा । अँगड़ाई लेता हुआ वह उठ बैठा ।
उठते ही उसने कई घड़े मदिरा पीकर बहुत सा कच्चा मांस खाया । तब कुंभकर्ण ने पूछा “मुझे किसने और क्यों जगाया है ” मंत्री ने कहा राक्षसेन्द्र आपको याद कर रहे हैं । बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा में हैं । कुंभकर्ण रावण के पास पहँँचा और उसके चरणों में प्रणाम किया । फिर रावण से जगाने का कारण पुछा । रावण बोला वीरवर तुम सो रहे थे । तुम्हें नहीं मालूम इस बीच यहाँ कितना अनर्थ हआ है ।
राम की वानर सेना समुद्र पर पुल बनाकर लंका में आ गई है और वह नगर का घेरा डाले पड़ी है कई दिन से युद्ध चल रहा है हमारे अनेक बड़े बड़े वीर मारे गए हैं सेनापति प्रहस्त भी वीर गति को प्राप्त हुए अब तुम्हारा ही सहारा है । कुंभकर्ण हँसा और बोला “हमने तुम्हें पहले ही बताया था कि बुरे कर्मों का फल बुरा ही होता है । तुमने हमारी बात पर कोई ध्यान ही नहीं दिया मंदोदरी और विभीषण की सलाह को भी तुमने ठुकरा दिया रावण कुछ रुष्ट सा होकर बोला “भाई मैं तुम्हें उपदेश सुनाने के लिए नहीं जगाया जो हुआ सो हुआ ।
मुझे तुम्हारे पुरुषार्थ की जरूरत है । तुम्हारे पुरुषार्थ से ही मेरा संकट दूर हो सकता है ।” कुंभकर्ण को रावण पर दया आई । उसने कहा तुम चिन्ता न करो । अब मैं रणभूमि को जा रहा हूँ । राम लक्ष्मण को मारकर तुम्हें सुखी करूँगा । कुंभकर्ण की बात सुनकर राठण प्रसन्न हुआ और उसकी वीरता की प्रशंसा करके युद्ध के लिए उसे विदा किया । हाथ में एक बड़ा सा त्रिशूल लेकर कुभकर्ण दुर्ग के बाहर आ गया । कुंभकर्ण को देखते ही वानर सेना में भगदड़ मच गई । अंगद ने बड़ी कठिनाई से उनको रोका । वे उस पर बड़े बड़े वृक्ष और बड़ी बड़ी शिलाएँ फेंकन लगे ।
शिलाएँ उसके शरीर में ऐसे लगतीं जैसे हाथी को आक फल की चोट लगे । कुंभकर्ण की सेना से तो जहाँ तहाँ वानर वीर भिड़ गए पर उसके सामने आने का कोई साहस न करता । हनुमान आगे बढ़े । उन्होंने बड़ी भारी शिला फेंककर उसे थोड़ा सा घायल किया । कुंभकर्ण ने अपने त्रिशूल से उनका हृदय फाड़ दिया । रक्त की धार बह निकली । हनुमान को व्याकुल होते देखकर वानर सेना में त्राहि त्राहि मच गई । कुंभकर्ण ने अनेक प्रमुख वानर वीरों को मारकर अचेत कर दिया । तब अंगद आगे बढ़े । कुंभकर्ण के वार को बचाते हुए उन्होंने उसकी छाती में घूँसा मारा ।
थोड़ी देर के लिए कुंभकर्ण मूर्च्छित हुआ फिर उसने अंगद और सुग्रीव दोनों को अचेत कर दिया । सुग्रीव को पकड़कर वह लंका की ओर ले चला । मार्ग में सुग्रीव की मूर्च्छा टूटी । उन्होंने अपने पैने नखों और दाँतों से उसके नाक कान काट डाले और सीना फाड़ दिया । रक्त बहता देखकर कुंभकर्ण ने सुग्रीव को उछालकर पृथ्वी पर दे मारा । वे तुरंत उठकर भागे । कुंभकर्ण भी लौट पड़ा और वानर सेना पर टूट पड़ा ।
अब लक्ष्मण कुंभकर्ण से युद्ध करने लगे । लक्ष्मण की बाण वर्षा से कुंभकर्ण प्रसन्न हुआ । वह लक्ष्मण से बोला बीरबर तुम युद्ध विद्या में प्रवीण हो । मैं मान गया । अब मुझे राम के सामने पहुँचने दो । में अब उन्हीं को मारना चाहता हूँ। लक्ष्मण ने संकेत से राम को दिखा दिया । राम तैयार खड़े थे । युद्ध छिड़॒ गया । दाहिने हाथ में कुंभकर्ण एक भारी मुग्दर लिए था । एक दिव्य बाण चलाकर राम ने कुंभकर्ण की वह भुजा काट दी । भुजा के नीचे कितने ही वानर दब गए । तब बाएँ हाथ से वृक्ष उखाड़कर कुभकर्ण राम की ओर दोड़ा । दूसरी भुजा भी राम ने काट डाली । तब वह मुँह फाड़कर राम की ओर दौड़ा । राम ने उसके दोनों पैर काट डाले । फिर भी वह नहीं मरा । तब श्रीराम ने एक बाण से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया । वानर सेना में श्रीराम की जय जयकार होने लगी। बची खुची राक्षस सेना लंका की ओर भाग गई।