अत्रि मुनि से विदा लेकर राम ने दंडक बन में प्रवेश किया । बड़ा हरा भरा और घना बन था। भाँति भाँति के जीव जंतुओं और पशु पक्षियों की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। जहाँ तहाँ मुनियों के आश्रम थे जिनमें से बेद ध्बनि आती थी। श्रीराम के आने का समाचार पाकर ऋषि मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने राम को अपना दुःख बताया मुनि बोले यहाँ बन में अनेक राक्षस तरह तरह का रूप बनाकर घूमते रहते हैं और अवसर पाकर हमलोगों पर हमला कर देते हैं ।

राम ने उनकी बातें ध्यान से सुनी ओर उन्हें ढाढ़स दिया वह रात उन्होंने मुनियों के साथ आश्रम में ही बिताई । अगले दिन राम लक्ष्मण और सीता ने और भी घने बन में प्रवेश किया । कुछ दूर जाने पर एक विशाल शरीर और लंबी बाहोंवाला दानव मिला । उसने झपटकर सीता को पकड़ लिया ओर राम लक्ष्मण से डपट कर बोला “ढोंगियों तुम कौन हो मुनि का भेष बना लिया है और ऐसी सुंदर स्त्री लिए घूम रहे हो यह मेरे काम की है भाग जाओ ।”

राम ने पूछा तूम कौन हो वह गरज कर बोला मैं महाबली विराध हूँ। जल्दी भागो नहीं तो फाडकर खा जाऊँगा । राम लक्ष्मण ने उन पर बाणों की वर्षा शुरू करं दी । विराध क्रोध से पागल हो गया । बाणों की वर्षा की कुछ भी परवाह न करके वह राम लक्ष्मण पर झपटा । दोनों भाइयों को अपनी लंबी भुजाओं में जकड़कर वह एक ओर को चल पड़ा । यह देखकर सीता जोर जोर से रोने चिल्लाने लगी । राम लक्ष्मण ने उसके दोनों हाथ मरोड़ कर तोड़ डाले। तब राक्षस जमीन पर गिर पड़ा राम लक्ष्मण ने एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदा और टोंक पीटकर उसे जिंदा ही जमीन में गाड़ दिया ।

वहाँ से चलकर राम शरभंग मुनि के आश्रम में पहुँचे शरभंग मुनि ने कहा आपके दर्शन से मेरी लालसा पूरी हुई । आपने अच्छा किया कि यहाँ आ गए । ऋषि मुनियों की रक्षा हो जाएगी । आपको देखने के बाद अब मैं और कुछ नहीं देखना चाहता । इतना कहंकर शरभंग मुनि जलती हुई चिता में समा गए। अनेक ऋषि मुनि वहाँ जमा हो गए । उन्होंने हड्डियों के ढेर दिखाकर राम से कहा कि “ये ऋषियों के कंकाल हैं जिनको राक्षसों ने खा डाला है। राम ने कहा “डरें नहीं मैं राक्षमों का नाश कर दूंगा । अब राम सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में पहुँचे सुतीक्ष्ण मुनि अगस्त्य ऋषि के शिष्य थे और भगवान्‌ के बड़े भक्त थे।

श्रीराम का स्वागत सत्कार कर उन्होंने भी राक्षसों के अत्याचार की कहानियाँ राम को सुनाई । उस दिन राम लक्ष्मण और सीता सुतीक्षण के आश्रम में ही टिक गए । अगले दिन वे फिर चल पड़े और दंडक वन के विभिन्‍न स्थानों में रहे सीताजी कहतीं “आर्य पुत्र वन में रहकर राक्षसों से बैर मोल लेना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता । राम ने उत्तर दिया भद्रे हम लोग क्षत्रिय हैं । हमारा धर्म है पीड़ितों की रक्षा करना शरण में आए हुए की मदद करना। ऋषियों को मैं भगवान्‌ भरोसे कैसे छोड़ सकता हूँ इस प्रकार दंडक वन में घूमते घूमते दस वर्ष बीत गए लौटकर वे फिर सुतीक्षण मुनि के आश्रम में आ गए ।

सुतीक्षण ने उन्हें अगस्त्य ऋषि से मिलने का परामर्श दिया । सुतीक्ष्ण के आश्रम से पाँच योजन दूर आर्य श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषि का आश्रम था । राम लक्ष्मण और सीता उसी ओर चल दिए । मार्ग में श्रीराम ने बताया कि भगवान्‌ अगस्त्य ही सबसे पहले विन्ध्याचल को पारकर यहाँ आए उन्होंने ही दक्षिण दिशा का द्वार खोला । उनसे राक्षस डरते हैं और उन्हीं के भरोसे दूसरे ऋषि यहाँ आ पहुँचे हैं उनके दर्शन कर आज हम धन्य होंगे। उन्हीं की आज्ञा से हम वनवास का शेष समय काटेंगे । श्रीराम के आने का समाचार पाकर अगस्त्य ऋषि बाहर आए राम लक्ष्मण और सीता ने उनके चरणों में प्रणाम किया ।

मुनि ने सबको आसन देकर कंद मूल फल खाने को दिए । राम को तरह तरह के उपदेश देकर बोले अच्छा किया आप यहाँ तक आ गए मैं स्वयं आपसे मिलना चाहता था आपका सब हाल मैं जान चुका हूँ । आपकी शक्ति भी जानता हूँ। राक्षसों को मारकर जनस्थान की रक्षा करना आपका काम होगा जिससे ऋषि मुनि यहाँ बेटखटके जप तप कर सके ।” यह कहकर अगस्त्य ऋषि ने दिव्य अस्त्र शस्त्र राम को दिए विष्णु से प्राप्त महाधनुष दिया ब्रह्मा से मिला हुआ एक अमोघ बाण दिया और इन्द्र से मिले हुए तरकश दिए जो सदा बाणों से भरे रहते थे । सोने की मूठवाला एक खड्ग भी उन्होंने श्री राम को दिया ।

श्रीराम ने इन दिव्य शस्त्रों को सिर से लगाकर ग्रहण किया तब मुनि ने राम से कहा यहाँ से दो योजन दूर गोदावरी नदी के किनारे पंचबटी नामक एक स्थान है वनवास का शेष समय बहीं व्यतीत करो सीता और लक्ष्मण सहित रामचन्द्रजी पंचलटी की ओर चल दिए । मार्ग में उनको भयंकर शरीरवाला एक गिद्ध मिला । दोनों भाइयों ने समझा कि वह कोई राक्षस है परंतु गिद्धराज ने उन्हें पहचान लिया और॑ बह मंधुर वाणी में बोला मेरा नाम॑ जटायु है । मैं तुम्हारे पिता दशरथ का मित्र हूँ । वनवास में मैं तुम्हारी हर तरह से सहायता करना चाहता हूं । श्रीराम ने पिता के समान उसको आदर दिया और उसको साथ लेकर बे पंचवटी की ओर गए ।