वर्षा का मौसम था। एक बैलगाड़ी कच्ची सड़क पर जा रही थी। यह बैलगाड़ी श्यामू की थी। वह बड़ी जल्दी में था। हल्की हल्की वर्षा हो रही थी। श्यामू वर्षा के तेज होने से पहले घर पहुँचना चाहता था। बैलगाड़ी में अनाज के बोरे रखे हुए थे। बोझ काफी था इसलिए बैल भी ज़्यादा तेज़ नहीं दौड़ पा रहे थे।

अचानक बैलगाड़ी एक ओर झुकी और रुक गई। हे भगवान ये कौन सी नई मुसीबत आ गई अब श्यामू ने मन में सोचा। उसने उतरकर देखा। गाड़ी का एक पहिया गीली मिट्टी में धँस गया था। सड़क पर एक गडूढा था जो बारिश के कारण और बड़ा हो गया था।

आसपास की मिट्टी मुलायम होकर कीचड़ जैसी हो गई थी और उसी में पहिया फँस गया था। श्यामू ने बैलों को खींचा और खींचा फिर पूरी ताक॒त से खींचा। बैलों ने भी पूरा ज़ोर लगाया लेकिन गाड़ी बाहर नहीं निकल पाई। श्यामू को बहुत गुस्सा आया। उसने बैलों को पीटना शुरू कर दिया। इतने बड़े दो बेल इस गाड़ी को बाहर नहीं निकाल पा रहे हैं यह बात उसे बेहद बुरी लग रही थी।

हारकर वह ज़मीन पर ही बेठ गया। उसने ईश्वर से कहा हे ईश्वर अब आप ही कोई चमत्कार कर दो जिससे कि यह गाड़ी बाहर आ जाए। मैं ग्यारह रुपए का प्रसाद चढ़ाऊँगा। तभी उसे एक आवाज़ सुनाई दी श्यामू ये तू क्या कर रहा हे अरे बेलों को पीटना छोड़ और अपने दिमागृ का इस्तेमाल कर।

गाड़ी में से थोड़ा बोझ कम कर। फिर थोडे पत्थर लाकर इस गड्ढे को भर। तब बैलों को खींच। इनकी हालत तो देख। कितने थक गए हैं बेचारे श्यामू ने चारों ओर देखा। वहाँ आस पास कोई नहीं था। श्यामू ने वैसा ही किया जैसा उसने सुना था। पत्थरों से गड्ढा थोड़ा भर गया और कुछ बोरे उतारने से गाड़ी हल्की हो गई। श्यामू ने बैलों को पुचकारते हुए खींचा ज़ोर लगा के और एक झटके के साथ बैलगाड़ी बाहर आ गई।

वही आवाज़ फिर सुनाई दी देखा श्यामू यह चमत्कार ईश्वर ने नहीं तुमने खुद किया है। ईश्वर भी उनकी ही मदद करते हैं जो अपनी मदद खुद करते हैं।